April 20, 2024 7:11 pm

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*लोकतंत्र के स्तंभों का नेटवर्क और आम जनता की मार्केटिंग क्या सबको बराबर न्याय मिल रहा..?*

*लोकतंत्र के स्तंभों का नेटवर्क और आम जनता की मार्केटिंग क्या सबको बराबर न्याय मिल रहा..?*

क्या जनता की मार्केटिंग हो रही है ?*

या जनता की मार्केटिंग नहीं हो रही है ?
क्या सब को बराबर न्याय मिल रहा है ?
जब भी लोकतंत्र हमारे ज़हन में आता है तब अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की लोकतंत्र के लिए कही गई परिभाषा याद आती है। अब्राहम लिंकन ने कहा था, “लोकतंत्र जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है।” देश, समाज और परिस्थितियों को सुचारु रूप से चलाने के लिए बुना गया एक जाल है लोकतंत्र।

किसी एक संस्था के पास एकाधिकार होने पर लोकतंत्र के राजतंत्र में बदलने का खतरा होता है। राजतंत्र में जनता के अधिकार सीमित होते हैं और किसी एक जाति, धर्म, समुदाय, लिंग, भाषा, क्षेत्र या परिवार को सारे अधिकार दे दिए जाते हैं। लोकतंत्र का महत्व बताते हुए आचार्य चाणक्य ने कहा था, “अगर शिक्षित और युवा राजनीति में भाग नहीं लेता है तो वह किसी मूर्ख के हाथ सत्ता सौंपने में मदद करता है।”

भारत के संविधान में इस बात का उल्लेख है कि सभी नागरिकों को समाज में समान अधिकार दिए गए हैं। अगर किसी के अधिकारों का हनन किया जाता है तो संवैधानिक उपचारों का भी प्रावधान है। मानव अधिकारों की रक्षा के लिए बनाए गए लोकतंत्र के पक्ष में हर युग में क्रांति के सबूत मिलते हैं। त्रेता, द्वापर, कलयुग, कौटिल्य, इन सभी युगों में आम आदमी की रक्षा के लिए क्रांति होती रही है। यहां तक कि दूसरों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए कई लोगों ने अपनी जान भी दी है।

चाहे वह राम और रावण के बीच का युद्ध हो, महाभारत का युद्ध हो या फिर मिस्र का युद्ध हो, इन सबका उद्देश्य मानव अधिकारों की रक्षा और लोकतंत्र की स्थापना ही रही है। अब यह सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या 21वीं सदी के 18 साल बीत जाने के बाद भी भारत में लोकतंत्र की स्थापना पूर्ण रूप से हो चुकी है या अब भी लोकतंत्र कोरी कल्पना मात्र है।

क्या भारत में लोकतंत्र है?
जहां एक ओर ऋग्वेदिक काल, त्रेता युग, द्वापर युग और कौटिल्य साहित्य में लोकतंत्र का नेटवर्क मिलता है, वहीं दूसरी ओर लोकतंत्र का माखौल उड़ाने वालों का भी एक अलग धड़ा मिलता है। वर्तमान में लोकतंत्र के चारों स्तंभ ‘कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता’ में बहुत सारे ऐसे उदाहरण मिलते हैं जो नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए समर्पित हैं। इसके साथ ही कई ऐसे भी पत्रकार, कानूनविद, राजनेता और अधिकारी हैं जो अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं और लोकतंत्र को खोखला करने में लगे रहते हैं।

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भले ही भारत में यह माना जाता है कि 1947 में देश के आज़ाद होने के बाद 1950 में देश में संविधान लागू हुआ और लोकतंत्र की स्थापना हुई लेकिन ऐसा नहीं है। त्रेता युग में सही राजा के चुनाव के लिए राजा राम और उनके दो बेटों लव और कुश के बीच युद्ध लोकतंत्र का उदाहरण है। इसी तरह द्वापर युग में राजा भरत द्वारा अपने 9 संतानों में से किसी को भी लोकतंत्र के रक्षक के तौर पर नहीं पाए जाने पर अपने ही राज्य के भारद्वाज नामक ब्राह्मण को राजा बनाना भी लोकतंत्र की स्थापना का उदाहरण है।

द्वापर युग में ही साहित्यकार और पथ प्रदर्शक कृष्ण द्वारा यह श्लोक कहा गया है,

“यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानम्धर्मस्य तदात्मानम् श्रृजाम्यहम।।

परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुश्कृतम्।

*धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे।।”*

*यह श्लोक साबित करता है कि जब भी सिस्टम ने नागरिकों के हितों को अनदेखा किया है तब समाज में क्रांति होती रही है।*

वर्तमान में सन् 1950 में लागू हुए संविधान के नियमों को अपनाया जा रहा है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए चार स्तंभों ‘कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता’ को संवैधानिक अधिकार दिए गए हैं लेकिन इस नेटवर्क में हर दूसरी कड़ी के लोग जनता की मार्केटिंग करने से नहीं चूकते हैं।

जहां एक ओर पत्रकार लालच या भय में आकर सत्ताधारियों के पक्ष में लिखने और बोलने से गुरेज़ नहीं करते हैं, वहीं न्यायालयों में रसूखदारों के पक्ष में फैसले और सदनों में जनता के हितों को नज़रंदाज़ कर देने के अनेक फैसले साफ कर देते हैं कि सबकुछ ठीक नहीं है। आज के परिवेश में राम राज और अच्छे दिन की सोच कोरी कल्पना मात्र है।

*कैसे हो रही है जनता की मार्केटिंग?*

पहले बताए गए अध्ययनों से यह तो साफ हो जाता है कि जनता की मार्केटिंग खुलेआम चल रही है। यह भी समझ लेना ज़रूरी है कि जनता की मार्केटिंग कैसे की जा रही है। इंडिया टीवी के मशहूर शो ‘आपकी अदालत’ में वरिष्ठ पत्रकार रजत शर्मा के सवाल के जवाब में शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने खुले मंच पर स्वीकार किया था कि न्यायालयों में सही फैसले नहीं होते हैं और सत्ता में बैठे लोग फैसले अपने पक्ष में खरीद लेते हैं।

रजत शर्मा ने बाल ठाकरे से अगला सवाल पूछा कि अधिकांश फैसले उनके पक्ष में कैसे हो जाते हैं। इसके जवाब में बाल ठाकरे ने कहा, “हां मैं भी खरीद कर फैसले अपने पक्ष में कराता हूं। अगर ऐसा ना करूं तो कोई और खरीद लेगा।”

स्वतंत्रता सेनानी और वरिष्ठ पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने कहा था, “पत्रकार को विपक्ष में बैठना चाहिए।” इसी के समर्थन में वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने एक साक्षात्कार में कहा, “वर्तमान में सरकार का गुणगान करने वाली खबरें छापी और दिखाई जा रही हैं। अगर खबर की हेडलाइन सरकार या रसूखदारों का गुणगान कर रही हो तो सतर्क हो जाइए और उस पत्रकार पर भरोसा मत करिए, शक करिए। अगर सरकार की गलत नीतियों का विरोध हो तभी आप पत्रकार या मीडिया हाउस पर भरोसा करिए।”

जिन स्तंभों पर देश को सुचारु रूप से चलाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है, उन्हें आप आपस में लड़ते हुए भी देख सकते हैं। ‘द वायर’ वेबसाइट पर 28 नवंबर 2017 के एक लेख में इसी तरह के एक घटनाक्रम का उल्लेख किया गया है। संविधान दिवस के मौके पर आयोजित एक कार्यक्रम में विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद और मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के बीच यह देखने को मिला।

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रविशंकर प्रसाद ने आश्चर्य जताया कि निष्पक्ष न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए न्यायपालिका उन पर और प्रधानमंत्री पर विश्वास क्यों नहीं करती। विधि मंत्री ने यह बयान राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग मामले में उच्चतम न्यायालय के फैसले के संदर्भ में दिया। इस फैसले के ज़रिए शीर्ष अदालत ने एनजेएसी को असंवैधानिक ठहराते हुए उच्चतम न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली को बहाल किया था।

*लोकतंत्र में जनता को कितना स्थान मिला है?*

लोकतंत्र के चारों स्तंभों में बैठे कुछ लोग नेटवर्क का भरपूर दुरुपयोग कर रहे हैं। ऐसी ही कुछ विसंगतियों के कारण भारत को विकसित राष्ट्र बनाने में कठिनाई आ रही है और संपूर्ण रूप से जनता के अधिकारों की रक्षा नहीं की जा रही है। न्यायालय के फैसलों और सदन में बन रहे नियम, कानूनों से जनता के हित गायब नज़र आ रहे हैं। जनता की खबरों को ना दिखाने के लिए मीडिया को भी डराया, धमकाया जा रहा है।

अगर यह कहा जाए कि यह नेटवर्क ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ के सिद्धांत पर चल रही है तो गलत नहीं होगा। जिस नेटवर्क को जनता के हितों के लिए बनाया गया था, आज उसी में जनता को मछली की तरह फंसा कर विवश किया जा रहा है और आम आदमी ठगा हुआ सा महसूस कर रहा है।

*कैसे नेटवर्क में फंसी हुई है जनता?*

आम लोगों को लगता है कि लोकतंत्र के सारे स्तंभ अपनी तरफ से पूरी ईमानदारी से कार्य कर रहे हैं, जबकि लोकतंत्र के चारों स्तंभों को मिला कर जनता के लिए जो नेटवर्क बनाया गया है, उसकी बहुत सारी कड़ियां अभी भी लोकतंत्र और जनता के हित में नहीं है।

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अक्सर यह देखा गया है कि ताकत के प्रभाव में आकर या अपने फायदे के लिए लोकतंत्र के सारे स्तंभ जनता के हितों को अनदेखा करके अपने हित में काम करते हैं। अगर प्रभावहीन और गरीब जनता अपने हितों के लिए अदालत में जाती है तो वहां उसे ताकतवर और धनवान लोगों के आगे विवश होना पड़ता है।

आम जनता अपनी परेशानी लेकर विधायिका या कार्यपालिका के पास जाती है तो वे अपना हाथ पीछे खींच लेते हैं। मीडिया भी जनता के मुद्दों को गायब कर चुकी है। इसके कई उदाहरण मिले हैं जहां अपने हित और पक्ष में खबरें खरीदने-बेचने के आरोप लगते रहे हैं। इससे यह साफ हो जाता है कि संविधान को ज़मीनी स्तर पर लागू करने के लिए अभी और प्रयास करने की ज़रूरत है।

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